types of indian soil

soil की उत्पत्ति विभिन्न कारकों के क्रियान्वित अंतर संबंधों का प्रतिफल है।

मृदा की उत्पत्ति एवं विकास को प्रभावित करने वाले सक्रिय कारको में जलवायु एवं जैविक घटकों का जबकि निष्क्रिय कारको में आधारभूत चट्टान उच्चावच एवं समय का सर्वाधिक प्रभाव होता है।

मिट्टियों की उत्पत्ति पर जलवायु का प्रभाव

भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों की उत्पत्ति पर जलवायु का सर्वाधिक प्रभाव देखने को मिलता है।

200 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा

जहां 200 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा होने के साथ उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन के वृक्ष मिलते हैं वहां लेटराइजेशन के द्वारा लेटराइट मृदा का विकास होता है।

इस प्रकार की मृदा के ऊपर के परतों में सिलिका, क्षारीय तत्व एवं ह्यूमस का अभाव होता है, जलवायु में एलुमिनियम एवं आयरन के ऑक्साइड की अधिकता होती है।

25 सेंटीमीटर से कम वर्षा

वहीं भारत में 25 सेंटीमीटर से कम वर्षा वाले शुष्क जलवायु प्रदेश में कैल्सी करण के द्वारा मरुस्थलीय मृदा का विकास हुआ है जिसकी क्षारीयता औसत से अधिक होने के साथ ही ह्यूमस का अभाव होता है।

क्योंकि मृदा का विकास आधारभूत चट्टानों में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन के कारण होता है इसलिए चट्टानी संरचना का भी मृदा के विकास से प्रत्यक्ष संबंध होता है।

भारत में बेसाल्ट चट्टान से निर्मित संरचना वाले क्षेत्र में काली मृदा का विकास हुआ है जबकि ग्रेनाइट एवं नीस चट्टान से निर्मित संरचना वाले क्षेत्र में लाल मृदा का विकास हुआ है।

इस प्रकार के मृदा के वितरण का संबंध जलवायु दशाओं से ना होकर भूगर्भिक संरचना एवं संगठन से है।

मृदा की उत्पत्ति एवं विकास पर क्षेत्रीय दशाओं का प्रभाव

मृदा की उत्पत्ति एवं विकास पर क्षेत्रीय दशाओं का भी प्रभाव होता है जैसे कि बहते हुए जल के द्वारा लाए गए अवसादों  के निक्षेपण से जलोढ़ मृदा का विकास होता है।

भारत में इस प्रकार के मृदा का विकास उत्तरी मैदान के साथ तटीय क्षेत्रों में हुआ है।

इसी प्रकार अपर्याप्त अपवाह व्यवस्था के कारण जहां जल का भरा हुआ है वहां हाइड्रोमोरफिक मृदा से संबंधित विशेषताएं देखने को मिलती हैं।

जैसे नदियों के द्वारा निर्मित डेल्टाई मैदान में जलभराव के कारण पीट मृदा का विकास हुआ है।

वही उत्तर पश्चिमी भारत के राज्यों में जहां नहर सिंचाई के विकास के कारण जलभराव की समस्या उत्पन्न हुई है वहां सैलाइन एवं अल्काइन मृदा का विकास हुआ है।

उच्चावच का मृदा के विकास पर प्रभाव

उच्चावच का मृदा के विकास पर प्रभाव पड़ता है क्योंकि ढाल तीव्र होने पर सतही जल के बहाव के दर में वृद्धि के कारण अंत: स्पंदन का दर कम होने से मृदा निर्माणकारी प्रक्रम का दर भी कम हो जाता है।

जिससे मृदा की औसत मोटाई कम हो जाती है इसलिए ही भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में मिलने वाली मिट्टियों की औसत मोटाई कम होती है।

इस प्रकार भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों के विकास का संबंध केवल जलवायु दशाओं से ना होकर आधारभूत चट्टान उच्चावच और क्षेत्रीय दशकों से भी है इसलिए भारत में विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का विकास हुआ है।

जिसकी अपनी विशेषताएं भी हैं लेकिन मृदा की उत्पत्ति को प्रभावित करने वाली सभी कारकों में जलवायु का सर्वाधिक प्रभाव होता है क्योंकि भारत के अधिकांश क्षेत्र में औसत से कम मात्रा में वर्षा होने के कारण मृदा का रासायनिक गुण क्षारीय होने के साथ ह्यूमस का अभाव होता है।

भारत की मृदाओं का वर्गीकरण

मृदा की उत्पत्ति के आधार पर भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों को स्वास्थानिक एवं परिवहिक मृदा के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

स्वास्थानिक मृदा

आधारभूत चट्टान में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन के कारण स्वस्थानिक मृदा का विकास होता है।

भारत में लेटराइट एवं लाल मृदा को सवाई स्थानिक मंडलीय मृदा के रूप में परिभाषित किया गया है क्योंकि इनका भौगोलिक विस्तार अधिक विस्तृत है। 

वहीं मंडलीय मृदा के साथ मिलने वाली स्वास्थानिक अंतः मंडलीय मृदा के अंतर्गत काली मिट्टी, पर्वतीय मिट्टी, पीट मिट्टी एवं सैलाइन तथा अल्काइन मृदा को सम्मिलित किया गया है।

परिवहिक मृदा

अवसादों के निक्षेपण के द्वारा परिवहक मृदा का विकास होता है, भारत में जलोढक एवं मरुस्थलीय मृदा परिवहिक मृदा के उदाहरण हैं।

ICAR – Indian council of agriculture

 भौगोलिक विस्तार के आधार पर भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों को दो समूहों में वर्गीकृत किया गया है।

Major soil

मुख्य समूह के अंतर्गत जलोढ़क मृदा, काली मृदा, लाल मृदा, एवं लेटेराइट मृदा को रखा गया है।

Minor soil

प्रौढ़ समूह के अंतर्गत पर्वतीय, मरुस्थलीय, पीट, सैलाइन एवं अल्काइन मृदा को रखा गया है।

Typer of Soil

  1. Alluvial soil (जलोढ़ मृदा)
  2. Black soil (काली मृदा)
  3. Red and Yellow soil (लाल एवं पीली मिट्टी)
  4. Laterite soil (लैटेराइट मिट्टी)
  5. Mountain or forest soil (पर्वतीय या वनीय मिट्टी)
  6. Desert or Arid Soil (मरुस्थलीय मृदा)
  7. Saline Soil (लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी)
  8. Peaty or organic Soil (पीट या जैविक मृदा)

Alluvial soil (जलोढ़ मृदा)

भारत में बहते हुए जल के कारण लाए गए अवसादो के निक्षेपण से जलोढ़ मृदा का विकास हुआ है जो एक प्रकार की परिवहिक मृदा है।

इस मृदा का सर्वाधिक विकास भारत के उत्तरी मैदान में हुआ है इसके अतिरिक्त मैदानों, प्रायद्वीपीय भारत के नदी बेसिन में भी इस प्रकार की मृदा मिलती है।

जलोढक मृदा के अधिकांश क्षेत्र का संबंध अर्ध शुष्क जलवायु प्रदेश से होने के कारण ही मृदा के ऊपर की परतों में क्षारीय तत्वों के अधिकता लेकिन ह्यूमस का अभाव है।

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अवसादों की निक्षेपण के कारण जलोढ़क मृदा का विकास होने से अन्य किसी भी मृदा की अपेक्षा इस मृदा की खनिज विविधता सबसे अधिक होती है। जो कृषि की दृष्टि से जलोढ़ मृदा के उपयोगी होने का एक महत्वपूर्ण कारण है।

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जलोढ़ मृदा का निम्नलिखित क्षेत्रों में वर्गीकरण 

भूगर्भिक संरचना एवं संगठन के आधार पर जलोढ़ मृदा को भाभर, तराई, बांगर एवं खादर क्षेत्र में वर्गीकृत किया गया है –

पर्वतीय क्षेत्र में जहां नदियों के द्वारा लाए गए अवसादों का निक्षेपण हुआ है उसे भाभर कहते हैं, इस क्षेत्र में सामान्यतः नदियां सतह से विलुप्त हो जाती हैं।

जबकि भाभर के दक्षिण में जहां नदियों के सतह पर आने के कारण जल का भराव हो जाता है उसे तराई प्रदेश कहते हैं। इस क्षेत्र में मृदा की लवणता एवं क्षरीयता अपेक्षाकृत अधिक होती है।

पुरानी जलोढ़क से निर्मित बाढ़ से अप्रभावित ऊपरी नदी बेसिन को बांगर कहते हैं।

जबकि नवीनतम जलोढ़क से निर्मित बाढ़ से प्रभावित निम्न नदी बेसिन को खादर कहते हैं।

काली मृदा (black soil)

भारत में बेसाल्ट चट्टान से निर्मित संरचना वाले क्षेत्र में अपक्षयन के द्वारा काली मृदा का विकास हुआ है, इसलिए ही इसे स्वास्थानिक मृदा कहते हैं।

बेसाल्ट चट्टान से निर्मित संरचना का सर्वाधिक विकास महाराष्ट्र के दक्कन ट्रैप क्षेत्र में होने के कारण ही महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्र में काली मृदा का विकास हुआ है।

Black Soil
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इसके अतिरिक्त गुजरात के काठियावाड़ प्रायदीप, मध्यप्रदेश के मालवा पठार, छोटा नागपुर के राज महल पर्वत, तेलंगाना का पठार, कोयंबतूर एवं मदुरई के पठार के साथ बेंगलुरु एवं मैसूर के पठार में भी काली मृदा मिलती है।

लाल मृदा के साथ मिलने के कारण ही इसे अंत: मंडलीय मृदा भी कहते हैं। इस मृदा के अधिकांश क्षेत्र का संबंध अर्द्धशुष्क जलवायु प्रदेश से होने के कारण मृदा की ऊपर की परतों में क्षारीय तत्वों की अधिकता के साथ ही ह्यूमस का अभाव होता है।

लेकिन आयरन के योगिक टाइटेनिफेरस (Titaniferus) मैग्नेटाइट के अधिकता के कारण इस मृदा का रंग काला होता है।

स्वत: जुताई वाली मृदा

चीका युक्त मृदा होने के कारण यह आर्द्र होने पर चिपचिपी हो जाती है जबकि शुष्क होने पर बड़ी दरारें बन जाती हैं जिससे इस मृदा की स्वत: जुताई हो जाती है इसलिए इसे स्वत: जुदाई वाली मृदा भी कहते हैं।

कृषि के लिए उपयोगी

यह मृदा कपास की कृषि के लिए सर्वाधिक उपयोगी होती है इसलिए इसे काली कपासी मृदा (Black cotton soil) भी कहते हैं इसे प्रायद्वीपीय भारत में रेंगुर मृदा भी कहते हैं।

Red and Yellow soil (लाल एवं पीली मिट्टी)

प्रायद्वीपीय भारत में ग्रेनाइट एवं नीस चट्टान से निर्मित संरचना वाले क्षेत्र में अपक्षयन के द्वारा लाल मृदा का विकास हुआ है इसलिए यह क्षेत्रीय मृदा कहते हैं।

Red Soil
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प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश क्षेत्र में लाल मृदा का विकास होने के कारण इसे मंडलीय मृदा भी कहते हैं।

इस मृदा के अधिकांश क्षेत्र का संबंध अर्द्धशुष्क जलवायु प्रदेश से होने के कारण मृदा की ऊपर के पदों में क्षारीय तत्वों की अधिकता लेकिन ह्यूमस का अभाव होता है।

आयरन ऑक्साइड की अधिकता के कारण इस मृदा का रंग लाल होता है।

कृषि के लिए उपयोगी

इस मिट्टी में सर्वाधिक मोटे अनाज, दलहन एवं तिलहन की खेती की जाती है।

Laterite soil (लैटेराइट मिट्टी)

ग्रेनाइट एवं नीस चट्टान से निर्मित संरचना वाले वैसे क्षेत्र जहां 200 सेंटीमीटर से अधिक मात्रा में वर्षा होती है वहां लेटराइजेशन के द्वारा लेटेराइट मृदा का विकास होता है।

इस मृदा के ऊपर के परतों में एलुमिनियम एवं आयरन के ऑक्साइड की अधिकता के कारण न केवल मृदा का रंग लाल होता है बल्कि ऊपर की परतें ईट के समान कठोर हो जाती हैं।

निक्षालन के कारण क्षारीय तत्व, सिलिका एवं ह्यूमस का नीचे की परतों में जाने से मृदा का रासायनिक गुण उदासीन होने के साथ पोषक तत्वों का अभाव होता है।

वास्तव में यह वस्तुतः लेटेराइट मृदा, लाल मृदा का ही एक विशिष्ट प्रकार है जिसका संबंध आधारभूत चट्टान से ना होकर लेटराइजेशन की प्रक्रिया से है।

कृषि के लिए उपयोगी

चूने की कमी के कारण यह मृदा अम्लीय होती है और अम्लीय होने के कारण इसमें चाय की खेती होती है। यह कम उपजाऊ मृदा की श्रेणी में आती है।

Mountain or forest soil (पर्वतीय या वनीय मिट्टी)

पर्वतीय स्थलों पर विकसित होने के कारण इस मिट्टी की परत पतली होती है। इस मिट्टी में जीवाश्म की अधिकता होती है परंतु यह जीवाश्म अनपघटित (Undecompose) होते हैं। फल स्वरुप ह्यूमिक अम्ल का निर्माण होता है एवं मिट्टी अमलीय हो जाती है।

इस मिट्टी में पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है इसकी उर्वरा शक्ति भी कम होती है। यह मृदा अपरदन की समस्या से प्रभावित होती है।

कृषि के लिए उपयोगी

पहाड़ी ढालों पर स्थित होने के कारण इस मृदा में बागानी कृषि की जाती है। भारत में चाय, कहवा, मसाले एवं फलों की कृषि इस मिट्टी में होती है।

Desert or Arid Soil (मरुस्थलीय मृदा)

यह वास्तव में बलुई मिट्टी है जिसमें लोहा एवं फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में होता है परंतु नाइट्रोजन एवं ह्यूमस की कमी होती है। यह एक अनुर्वर मृदा है जो क्षारीय गुण वाली होती है।

कृषि के लिए उपयोगी

इस मिट्टी में मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, रागी आदि तथा तिलहन पैदा किए जाते हैं।

Saline Soil (लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी)

इस मिट्टी को अन्य रेह, ऊसर या कल्लर के नाम से भी जाना जाता है।

इस मृदा का विकास मुख्य रूप से वैसे क्षेत्रों में हुआ है जहां शुष्क जलवायु पाई जाती है एवं जल निकास की समुचित व्यवस्था का अभाव है।

ऐसी स्थिति में केशिका–कर्षण (Capillary action) की क्रिया द्वारा सोडियम, कैल्शियम एवं मैग्नीशियम के लवण मृदा के ऊपरी सतह पर निक्षेपित हो जाते हैं फल स्वरुप इस मिट्टी में लवण की मात्रा काफी बढ़ जाती है।

समुद्र तटीय क्षेत्रों में उच्च ज्वार के समय नमकीन जल के भूमि पर फैल जाने से भी इस मृदा का निर्माण होता है। इस मृदा में नाइट्रोजन एवं चूने की कमी होती है।

कृषि के लिए उपयोगी

तटीय क्षेत्रों में इस मृदा में नारियल के पेड़ बहुत अधिक मात्रा में मिलते हैं।

Peaty or organic Soil (पीट या जैविक मृदा)

दलदली क्षेत्रों में काफी अधिक मात्रा में जैविक पदार्थों के जमा हो जाने से इस मिट्टी का निर्माण होता है। यह मिट्टी काली, भारी एवं काफी अम्लीय होती है।

यह मिट्टी मुख्यता केरल के एल्लपी जिला, उत्तराखंड के अल्मोड़ा, सुंदरवन डेल्टा एवं अन्य निचली डेल्टाई क्षेत्र में पाई जाती है।

4 thoughts on “types of indian soil”

  1. लाल मिट्टी है बालुया मिट्टी पाया जाता है पृथ्वी का कौना में अलग अलग गुणों का मिट्टी है।
    हमारे या कन्हार मिट्टी है चिकनाई मिट्टी है
    रासायनिक नहीं है कोई फायदा नहीं।
    फसल का विकास लोंच है धान फसल अच्छी नहीं होती है मुंगफली अच्छा होता है।उड़द फसल अच्छी होती है। बाकी फसल अच्छी नहीं होती है।मेरा विचार आपके धन्यवाद आपका।

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